Alankar in Hindi Grammar
अलंकार का शाब्दिक अर्थ है ” आभूषण “.
मनुष्य सौंदर्य प्रेमी है, वह अपनी प्रत्येक वस्तु को सुसज्जित और अलंकृत देखना चाहता है। वह अपने कथन को भी शब्दों के सुंदर प्रयोग और विश्व उसकी विशिष्ट अर्थवत्ता से प्रभावी व सुंदर बनाना चाहता है। मनुष्य की यही प्रकृति काव्य में अलंकार कहलाती है।
मनुष्य सौंदर्य प्रिय प्राणी है। बच्चे सुंदर खिलौनों की ओर आकृष्ट होते हैं। युवक – युवतियों के सौंदर्य पर मुग्ध होते हैं। प्रकृति के सुंदर दृश्य सभी को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं। मनुष्य अपनी प्रत्येक वस्तु को सुंदर रुप में देखना चाहता है , उसकी इच्छा होती है कि उसका सुंदर रूप हो उसके वस्त्र सुंदर हो आदि आदि।
सौंदर्य ही नहीं , मनुष्य सौंदर्य वृद्धि भी चाहता है और उसके लिए प्रयत्नशील रहता है , इस स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण मनुष्य जहां अपने रुप – वेश , घर आदि के सौंदर्य को बढ़ाने का प्रयास करता है , वहां वह अपनी भाषा और भावों के सौंदर्य में वृद्धि करना चाहता है। उस सौंदर्य की वृद्धि के लिए जो साधन अपनाए गए , उन्हें ही अलंकार कहते हैं। उनके रचना में सौंदर्य को बढ़ाया जा सकता है , पैदा नहीं किया जा सकता।
” काव्यशोभा करान धर्मानअलंकारान प्रचक्षते ।”
Alankar ki paribhasha:-
अर्थात वह कारक जो काव्य की शोभा बढ़ाते हैं अलंकार कहलाते हैं। अलंकारों के भेद और उपभेद की संख्या काव्य शास्त्रियों के अनुसार सैकड़ों है।
लेकिन पाठ्यक्रम में छात्र स्तर के अनुरूप यह कुछ मुख्य अलंकारों का परिचय व प्रयोग ही अपेक्षित है।
अलंकार का महत्व :-
1. अलंकार शोभा बढ़ाने के साधन है। काव्य रचना में रस पहले होना चाहिए उस रसमई रचना की शोभा बढ़ाई जा सकती है अलंकारों के द्वारा।
जिस रचना में रस नहीं होगा , उसमें अलंकारों का प्रयोग उसी प्रकार व्यर्थ है. जैसे – निष्प्राण शरीर पर आभूषण। ।
2. काव्य में अलंकारों का प्रयोग प्रयासपूर्वक नहीं होना चाहिए। ऐसा होने पर वह काया पर भारस्वरुप प्रतीत होने लगते हैं , और उनसे काव्य की शोभा बढ़ने की अपेक्षा घटती है।
काव्य का निर्माण शब्द और अर्थ द्वारा होता है। अतः दोनों शब्द और अर्थ के सौंदर्य की वृद्धि होनी चाहिए।
अलंकार कितने प्रकार के होते हैं ? (alankar kitne prakar ke hote hain?)
अलंकार दो प्रकार के होते हैं – Alankar ke Prakar :-
शब्दालंकार – Shabd alankar
जहां काव्य में शब्दों के प्रयोग वैशिष्ट्य से कविता में सौंदर्य और चमत्कार उत्पन्न होता है । वहां शब्दालंकार होता है ।
‘ भुजबल भूमि भूप बिन किन्ही ‘
इस उदाहरण में विशिष्ट व्यंजनों के प्रयोग से काव्य में सौंदर्य उत्पन्न हुआ है। यदि ‘ भूमि ‘ के बजाय उसका पर्यायवाची ‘ पृथ्वी ‘ , ‘ भूप ‘ के बजाय उसका पर्यायवाची ‘ राजा ‘ रख दे तो काव्य का सारा चमत्कार खत्म हो जाएगा। इस काव्य पंक्ति में उदाहरण के कारण सौंदर्य है। अतः इसमें शब्दालंकार है।
शब्दालंकार के भेद
1. अनुप्रास अलंकार :-
वर्णों की आवृत्ति को अनुप्रास अलंकार कहते हैं. वर्णों की आवृत्ति के आधार पर वृत्यानुप्रास , छेकानुप्रास , लाटानुप्रास , श्रत्यानुप्रास, और अंत्यानुप्रास आदि इसके मुख्य भेद हैं।
2. यमक
यमक एक ही शब्द की आवृत्ति 2 या उससे अधिक बार होती है लेकिन अर्थ उनके भिन्न-भिन्न होते है।
3. श्लेश अलंकार
एक ही शब्द के कई अर्थ निकलते हैं तो वहां स्लेश अलंकार होता है ध्यान रखने योग्य बात यह है कि यमक के शब्द आवृत्ति होती है और एकाधिक अर्थ होते हैं जबकि प्लेस में बिना शब्द की आवृत्ति ही शब्द के एकाधिक अर्थ होते हैं।
अर्थालंकार – Arth alankar
जहां कविता में सौंदर्य और विशिष्टता अर्थ में नहीं तो वहां अर्थालंकार होता है
उदाहरण के लिए – ‘ चट्टान जैसे भारी स्वर ‘
इस उदाहरण में चट्टान जैसे के अर्थ के कारण चमत्कार उत्पन्न हुआ है। यदि इसके स्थान पर ‘ शीला ‘ जैसे शब्द रख दिए जाएं तो भी अर्थ में अधिक अंतर नहीं आएगा। इसलिए इस काव्य पंक्ति में अर्थालंकार का प्रयोग हुआ है।
कभी-कभी शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों के योग से काव्य में चमत्कार आता है उसे ‘ उभयालंकार ‘ कहते हैं।
अर्थालंकार के भेद
उपमा
यहां किसी वस्तु की तुलना सामान्य गुण धर्म के आधार पर वाचक शब्दों से अभिव्यक्त होकर किसी अन्य वस्तु से की जाती है। उपमा अलंकार होता है जैसे पीपर पात सरिस मन डोला।
रूपक
जहां उपमेय और उपमान भिन्नता हो और वह एक रूप दिखाई दे जैसे चरण कमल बंदों हरि राइ।
उत्प्रेक्षा
जहां प्रस्तुत उप में के अप्रस्तुत उपमान की संभावना व्यक्ति की जाए वहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है जैसे वृक्ष ताड़ का बढ़ता जाता मानो नभ को छूना चाहता।
भ्रांतिमान
जहां समानता के कारण उपमेय में उपमान की निश्चयात्मक प्रतीति हो और वह क्रियात्मक परिस्थिति में परिवर्तित हो जाए।
सन्देह
यहां उसी वस्तु के समान दूसरी वस्तु की संदेह हो जाए लेकिन वह निश्चित आत्मक ज्ञान में ना बदले वहां संदेह अलंकार होता है।
अतिशयोक्ति अलंकार
- जहां प्रस्तुत व्यवस्था का वर्णन कर उसके माध्यम से किसी अप्रस्तुत वस्तु को व्यंजना की जाती है वहां और अतिशयोक्ति अलंकार होता है।
- जहां किसी वस्तु का वर्णन बढ़ा चढ़ाकर किया जाए वहां अतिशयोक्ति अलंकार होता है ।
जैसे – हनुमान की पूंछ में लगन न पाई आगि, लंका सिगरी जल गई ,गए निशाचर भागी।।
विभावना अलंकार
जहां कारण के अभाव में कार्य की उत्पत्ति का वर्णन किया जाता है विभावना अलंकार होता है।
जैसे- चुभते ही तेरा अरुण बाण
कहते कण – कण से फूट – फूट
मधु के निर्झर के सजल गान ।
जहां का मूर्त या अमूर्त वस्तुओं का वर्णन सचिव प्राणियों या मनुष्यों की क्रियाशीलता की भांति वर्णित किया जाए वहां मानवीकरण अलंकार होता है अर्थात निर्जीव में सचिव के गुणों का आरोपण होता है।
अलंकार के भेद विस्तार में – Alankar ke bhed
अब आप अलंकार के सभी भेद विस्तार में पढ़ने जा रहे हैं। आपको प्रति एक अलंकार के साथ उनके उदाहरण भी पढ़ने को मिलेंगे।
1. अनुप्रास अलंकार – Anupras alankar
जब समान व्यंजनों की आवृत्ति अर्थात उनके बार-बार प्रयोग से कविता में सौंदर्य की उत्पत्ति होती है तो व्यंजनों की इस आवृत्ति को अनुप्रास कहते हैं।
अनुप्रास शब्द अनु + प्रास शब्दों से मिलकर बना है। अनु का अर्थ है बार – बार , प्रास शब्द का अर्थ है वर्ण। अर्थात जो शब्द बाद में आए अथवा बार-बार आए वहां अनुप्रास अलंकार की संभावना होती है।
- जिस जगह स्वर की समानता के बिना भी वर्णों की आवृत्ति बार-बार होती है वहां भी अनुप्रास अलंकार होता है।
- जिस रचना में व्यंजन की आवृत्ति एक से अधिक बार हो वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है।
अनुप्रास के पांच भेद हैं
- छेकानुप्रास
- वृत्यानुप्रास
- अंतानुप्रास
- लाटानुप्रास
- श्रुत्यानुप्रास
इनमें प्रथम दो का विशेष महत्व है। उनका परिचय निम्नलिखित है –
छेकानुप्रास –
जहां एक या अनेक वर्णों की केवल एक बार आवृत्ति हो जैसे –
” कानन कठिन भयंकर भारी। घोर हिमवारी बयारी। “
इस पद्यांश के पहले चरण में ‘ क ‘ तथा ‘ भ ‘ वर्णो की एवं दूसरे चरण में ‘ घ ‘ वर्ण की एक – एक बार आवृत्ति हुई है। अतः छेकानुप्रास है।
वृत्यानुप्रास –
जहां एक या अनेक वर्णों की अनेक बार आवृत्ति हो जैसे –
“चारु चंद्र की चंचल किरणें खेल रही थी जल – थल में “
यहां कोमल – वृत्ति के अनुसार ‘ च ‘ वर्ण की अनेक बार आवृत्ति हुई है। अतः वृत्यनुप्रास अलंकार है।
अनुप्रास अलंकार के उदाहरण :-
- तट तमाल तरूवर बहू छाए ( ‘त ‘ वर्ण की आवृत्ति बार – बार हो रही है )
- भुज भुजगेस की है संगिनी भुजंगिनी सी ( ‘ भ ‘ की आवृत्ति )
- चारू चंद की चंचल किरणे ( ‘ च ‘ की आवृत्ति बार बार हो रही है )
- तुम मांस – हीन , तुम रक्तहीन हे अस्थि – शेष तुम अस्थिहीन ( सुमित्रानंदन पंत की कविता का अंश ) ( ‘त’ वर्ण की आवृत्ति होने के कारण अनुप्रास अलंकार है )
- ” कानन कठिन भयंकर भारी। घोर हिमवारी बयारी। ” ( ‘ क ‘ और ‘ भ ‘ वर्ण की आवृत्ति )
- “चारु चंद्र की चंचल किरणें खेल रही थी जल – थल में ” – (‘ च ‘ वर्ण की आवृत्ति बार बार हो रही है। )
- “मधुप गुन – गुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी।” ( ‘ग’ और ‘ क ‘ वर्ण की आवृत्ति बार बार हो रही है। )
- “घेर घेर घोर गगन ,शोभा श्री।” ( ‘ घ ‘ की आवृत्ति हुई है )
- “धूलि – धूसर , परस पाकर , सूरज की किरणों का।” ( ‘ ध ‘ और ‘ प ‘ वर्ण की आवृत्ति हुई है )
- “दुःख दूना ,सुरंग सुधियाँ सुहावनी ,कमजोर कांपती।” ( ‘ द ‘ और ‘ स ‘ वर्ण की आवृत्ति बार बार हो रही है। )
यमक अलंकार ( Yamak alankar )
किसी कविता या काव्य में एक ही शब्द दो या दो से अधिक बार आये और हर बार उसका अर्थ भिन्न हो वहाँ यमक अलंकार होता है।
उदाहरण के लिए
” वहै शब्द पुनि – पुनि परै अर्थ भिन्न ही भिन्न ”
अर्थात यमक अलंकार में एक शब्द का दो या दो से अधिक बार प्रयोग होता है और प्रत्येक प्रयोग में अर्थ की भिन्नता होती है। उदाहरण के लिए
” कनक कनक ते सौ गुनी , मादकता अधिकाय। या खाए बौराय जग , या पाए बौराय। ।
इस छंद में ‘ कनक ‘ शब्द का दो बार प्रयोग हुआ है।
एक ‘ कनक ‘ का अर्थ है ‘ स्वर्ण ‘ और दूसरे का अर्थ है ‘ धतूरा ‘ इस प्रकार एक ही शब्द का भिन्न – भिन्न अर्थों में दो बार प्रयोग होने के कारण ‘ यमक अलंकार ‘ है।
- काली घटा का घमंड घटा => घटा – बादल , घटा – कम होना
- तीन बेर खाती थी वह तीन बेर खाती थी => बेर – फल , बेर – समय
यमक अलंकार के दो भेद हैं ( Yamak alankar ke bhed ):-
- अभंग पद यमक
- सभंग पद यमक
- अभंग पद यमक
जब किसी शब्द को बिना तोड़े मरोड़े एक ही रूप में अनेक बार भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयोग किया जाता है , तब अभंग पद यमक कहलाता है। जैसे –
” जगती जगती की मुक प्यास। “
इस उदाहरण में जगती शब्द की आवृत्ति बिना तोड़े मरोड़े भिन्न-भिन्न अर्थों में १ ‘ जगती ‘ २ ‘ जगत ‘ ( संसार ) हुई है। अतः यह अभंग पद यमक का उदाहरण है।
2. सभंग पद यमक
जब जोड़ – तोड़ कर एक जैसे वर्ण समूह( शब्द ) की आवृत्ति होती है , और उसे भिन्न-भिन्न अर्थों की प्रकृति होती है अथवा वह निरर्थक होता है , तब सभंग पद यमक होता है।
जैसे –
” पास ही रे हीरे की खान ,
खोजता कहां और नादान?”
यहां ‘ ही रे ‘ वर्ण – समूह की आवृत्ति हुई है।
पहली बार वही ही + रे को जोड़कर बनाया है। इस प्रकार यहां सभंग पद यमक है।
अन्य उदाहरण
- ’ या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी। ।” ( अधरान – होठों पर , अधरा ना होठों पर नहीं )
- काली घटा का घमंड घटा । ( घटा – बादलों का जमघट , घटा – कम हुआ )
- माला फेरत जुग भया , फिरा न मन का फेर। कर का मनका डारि दे , मन का मनका फेर। ( मनका – माला का दाना , मनका – हृदय का )
- तू मोहन के उरबसी हो , उरबसी समान। ( उरबसी – हृदय में बसी हुई , उरबसी – उर्वशी नामक अप्सरा )
3. श्लेष अलंकार ( Shlesh alankar )
श्लेष का अर्थ है चिपकाना , जहां शब्द तो एक बार प्रयुक्त किया जाए पर उसके एक से अधिक अर्थ निकले वहाँ श्लेष अलंकार होता है।
जैसे –
पहला उदाहरण
” जो रहिम गति दीप की , कुल कपूत की सोय।
बारे उजियारे करे , बढ़े अंधेरो होय। । “
यहां ‘ दीपक ‘ और ‘ कुपुत्र ‘ का वर्णन है। ‘ बारे ‘ और ‘ बढे ‘ शब्द दो – दो अर्थ दे रहे हैं। दीपक बारे (जलाने) पर और कुपुत्र बारे (बाल्यकाल) में उजाला करता है। ऐसे ही दीपक बढे ( बुझ जाने पर ) और कुपुत्र बढे ( बड़े होने पर ) अंधेरा करता है। इस दोहे में ‘ बारे ‘ और ‘ बढे ‘ शब्द बिना तोड़-मरोड़ ही दो – दो अर्थों की प्रतीति करा रहा है। अतः अभंगपद श्लेष अलंकार है।
दूसरा उदाहरण
” रो-रोकर सिसक – सिसक कर कहता मैं करुण कहानी।
तुम सुमन नोचते , सुनते , करते , जानी अनजानी। । “
यहां ‘ सुमन ‘ शब्द का एक अर्थ है ‘ फूल ‘ और दूसरा अर्थ है ‘ सुंदर मन ‘ | ‘ सुमन ‘ का खंडन सु + मन करने पर ‘ सुंदर + मन ‘ अर्थ होने के कारण सभंग पद श्लेष अलंकार है।
- सुवर्ण को ढूँढत फिरत कवी , व्यभिचारी ,चोर। ( सुवर्ण – सुंदरी , सुवर्ण – सोना )
- रहिमन पानी राखिये , बिन पानी सब सून। पानी गए न ऊबरे , मोती मानुष , चून। । ( पानी के अर्थ है – चमक , इज्जत , जल )
- विपुल घन अनेकों रत्न हो साथ लाए। प्रियतम बतला दो लाल मेरा कहां है। । ( ‘ लाल ‘ शब्द के दो अर्थ हैं – पुत्र , मणि )
- मधुबन की छाती को देखो , सूखी कितनी इसकी कलियां। । ( कलियां १ खिलने से पूर्व फूल की दशा। २ योवन पूर्व की अवस्था )
- मेरी भव बाधा हरो ,राधा नागरी सोय , जा तन की झाई परे , श्याम हरित दुति होय। ( हरित – हर लेना , हर्षित होना ,हरा रंग का होना। )
4. उपमा अलंकार ( Upma alankar )
जहां एक वस्तु या प्राणी की तुलना अत्यंत समानता के कारण किसी अन्य प्रसिद्ध वस्तु या प्राणी से की जाती है।’
उपमा का अर्थ है – तुलना।
जहां उपमान से उपमेय की साधारण धर्म (क्रिया को लेकर वाचक शब्द के द्वारा तुलना की जाती है )
इस को समझने के लिए उपमा के चार अंगो पर विचार कर लेना आवश्यक है।
१ उपमेय , २ उपमान , ३ धर्म , ४ वाचक।
१ उपमेय अलंकार, ( प्रत्यक्ष /प्रस्तुत )
वस्तु या प्राणी जिसकी उपमा दी जा सके अथवा काव्य में जिसका वर्णन अपेक्षित हो उपमेय कहलाती है। मुख ,मन ,कमल ,आदि
२ उपमान ,( अप्रत्यक्ष / अप्रस्तुत )
वह प्रसिद्ध बिन्दु या प्राणी जिसके साथ उपमेय की तुलना की जाये उपमान कहलाता है – छान ,पीपर ,पात आदि
३ साधारण कर्म
उपमान तथा उपमेय में पाया जाने वाला परस्पर ” समान गुण ” साधारण धर्म कहलाता है जैसे – चाँद सा सुन्दर मुख
४ सादृश्य वाचक शब्द
जिस शब्द विशेष से समानता या उपमा का बोध होता है उसे वाचक शब्द कहलाते है। जैसे – सम , सी , सा , सरिस , आदि शब्द वाचक शब्द कहलाते है।
उपमा के भेद – १ पूर्णोपमा , २ लुप्तोपमा , ३ मालोपमा
- पूर्णोपमा – जहां उपमा के चारों अंग ( उपमेय , उपमान , समान धर्म , तथा वाचक शब्द ) विद्यमान हो , वहां पूर्णोपमा होती है।
- लुप्तोपमा – जहां उपमा के चारों अंगों में से कोई एक , दो या तीन अंग लुप्त हो वहां लुप्तोपमा होती है।
लुप्तोपमा के कई प्रकार हो सकते हैं। जो अंग लुप्त होता है उसी के अनुसार नाम रखा जाता है। जैसे –
मालोपमा – जब किसी उपमेय की उपमा कई उपमानों से की जाती है , और इस प्रकार उपमा की माला – सी बन जाती है , तब मालोपमा मानी जाती है।
उपमा अलंकार के उदाहरण
‘ उसका मुख चंद्रमा के समान है ‘
इस कथन में ‘ मुख ‘ रूप में है ‘ चंद्रमा ‘ उपमान है।’ सुंदर ‘ समान धर्म है और ‘ समान ‘ वाचक शब्द है।
‘ नील गगन – सा शांत हृदय था हो रहा।
इस काव्य पंक्ति में उपमा के चार अंग ( उपमेय – हृदय , उपमान – नील गगन , समान धर्म – शांत और वाचक शब्द सा ) विद्यमान है। अतः यह पूर्णोपमा है।
‘ कोटी कुलिस सम वचन तुम्हारा ‘
इस काव्य पंक्ति में उपमा के तीन अंग ( उपमेय – वचन , उपमान -कुलिश और वाचक – सम विद्यमान है , किंतु समान धर्म का लोप है।) अतः यह लुप्तोपमा का उदाहरण है। इसे ‘ धर्मलुप्ता ‘ लुप्तोपमा कहेंगे।
‘ हिरनी से मीन से , सुखंजन समान चारु , अमल कमल से , विलोचन तिहारे हैं। ‘
‘ नेत्र ‘ उपमेय के लिए कई उपमान प्रस्तुत किए गए हैं , अतः यहां मालोपमा अलंकार है।
अन्य उदाहरण :-
- स्वान स्वरूप रूप संसार है।
- वेदना बुझ वाली – सी।
- मृदुल वैभव की रखवाली – सी।
- चांदी की सी उजली जाली।
- रोमांचित सी लगती वसुधा।
- मरकत डिब्बे सा खुला ग्राम।
- सुख से अलसाए – से – सोए।
- एक चांदी का बड़ा – सा गोल खंभा।
- चंवर सदृश डोल रहे सरसों के सर अनंत।
- कोटि कुलिस सम वचनु तुम्हारा।
- सहसबाहु सम सो रिपु मोरा
- लखन उत्तर आहुति सरिस।
- भृगुवर कोप कृशानु , जल – सम बचन।
- भूली – सी एक छुअन बनता हर जीवित क्षण।
- वस्त्र और आभूषण शाब्दिक भ्रमों की तरह बंधन है स्त्री जीवन।
- चट्टान जैसे भारी स्वर
- दूध को सो फैन फैल्यो आंगन फरसबंद।
- तारा सी तरुणी तामें ठाडी झिलमिल होती।
- आरसी से अंबर में।
- आभा सी उजारी लगै।
- बाल कल्पना के – से पाले।
- आवाज से राख जैसा कुछ गिरता हुआ।
- हाय फूल सी कोमल बच्ची , हुई राख की ढेरी थी।
- यह देखिये , अरविन्द – शिशु वृन्द कैसे सो रहे।
- मुख बाल रवि सम लाल होकर ज्वाला – सा हुआ बोधित।
5. रूपक अलंकार ( Rupak alankar )
जहां गुण की अत्यंत समानता के कारण उपमेय में उपमान का भेद आरोप कर दिया जाए वहाँ रूपक अलंकार होता है। इसमें वाचक शब्द का प्रयोग नहीं होता।
उदाहरण :-
मैया मै तो चंद्र खिलोना लेहों।
यहाँ चन्द्रमा उपमेय / प्रस्तुत अलंकार है ,खिलौना उपमान / अप्रस्तुत अलंकार है।
चरण – कमल बन्दों हरि राई।
चरण – उपमेय / प्रस्तुत अलंकार और कमल – उपमान / अप्रस्तुत अलंकार।
” बीती विभावरी जाग री
अम्बर पनघट में डुबो रही
तारा घट उषा नागरी ”
तारा – उपमेय / प्रस्तुत अलंकार
घट – उपमान / अप्रस्तुत अलंकार।
” उदित उदय गिरि मंच पर , रघुवर बाल पतंग।
विकसे संत सरोज सब , हरषे लोचन भृंग। “
सांगोपांग रूपक अलंकार का सर्वश्रेष्ठ उदहारण है।
6 उत्प्रेक्षा अलंकार ( Utpreksha alankar )
जहां रूप , गुण आदि समानता के कारण उपमेय में उपमान की संभावना या कल्पना की जाए वहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।
इसके वाचक शब्द -> मनु , मानो ,ज्यों ,जानो ,जानहु, आदि
उदाहरण
कहती हुई यो उतरा के नेत्र जल से भर गए।
हिम के कणो से पूर्ण मानो हो गए पंकज नए। ।
उतरा के नेत्र – उपमेय / प्रस्तुत अलंकार है।
ओस युक्त जल – कण पंकज – उपमान / अप्रस्तुत अलंकार है।
उदाहरण
सोहत ओढ़े पीत पैट पट ,स्याम सलौने गात।
मानहु नीलमणि सैल पर , आपत परयो प्रभात। ।
स्याम सलौने गात – उपमेय / प्रस्तुत अलंकार
आपत परयो प्रभात -उपमान / अप्रस्तुत अलंकार।
जहां जड़ प्रकृति निर्जीव पर मानवीय भावनाओं तथा क्रियाओं का आरोप हो वहां मानवीकरण अलंकार होता है।
उदाहरण
दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह संध्या सुन्दरी , परी सी। ।
बीती विभावरी जाग री
अम्बर पनघट में डुबो रही
तारा घट उषा नागरी।
8 पुनरुक्ति अलंकार ( Punrukti alankar )
काव्य में जहां एक शब्द की क्रमशः आवृत्ति है पर अर्थ भिन्नता न हो वहाँ पुनरूक्ति प्रकाश अलंकार होता है / माना जाता है।
उदाहरण :-
- सूरज है जग का बूझा – बूझा
- खड़ – खड़ करताल बजा
- डाल – डाल अलि – पिक के गायन का बंधा समां।
9 अतिश्योक्ति अलंकार ( Atishyokti alankar )
जहां बहुत बढ़ा – चढ़ा कर लोक सीमा से बाहर की बात कही जाती है वहाँ अतिश्योक्ति अलंकार माना जाता है।
अतिशय + उक्ति बढ़ा चढ़ा कर कहना
उदाहरण
हनुमान के पूँछ में लग न सकी आग
लंका सिगरी जल गई , गए निशाचर भाग।
पद पाताल शीश अज धामा ,
अपर लोक अंग अंग विश्राम।
भृकुटि विलास भयंकर काला नयन दिवाकर
कच धन माला। ।
10 अन्योक्ति अलंकार ( Anyokti alankar )
अप्रस्तुत के माध्यम से प्रस्तुत का वर्णन करने वाले काव्य अन्योक्ति अलंकार कहलाते है।
उदाहरण
माली आवत देख के ,कलियाँ करे पूकार। फूल – फूल चुन लिए काल्हे हमारी बार
जिन दिन देखे वे कुसुम, गई सुबीति बहार। अब अलि रही गुलाब में, अपत कँटीली डार
इहिं आस अटक्यो रहत, अली गुलाब के मूल अइहैं फेरि बसंत रितु, इन डारन के मूल।
भयो सरित पति सलिल पति, अरु रतनन की खानि। कहा बड़ाई समुद्र की, जु पै न पीवत पानि।